महर्षि पतंजलि कहते हैं-कुछ चीजें ऐसी हैं जिन्हें जीवन में संभालकर रखना चाहिए। श्रद्धा वीर्य स्मृति समाधि प्रज्ञापूर्वक इतरेषाम्-यह सूत्र है महर्षि पतंजलि का। एक साधक यत्नपूर्वक स्वयं के प्रति गंभीर होकर, स्वयं के प्रति सचेत होकर, अपने में जागरूकता पैदा करके देखे कि क्या यह सब चीजें मेरे पास सुरक्षित हैं? क्या यह सब मैंने संभालकर रखी हैं? इस जगत में आप सही ढंग से नहीं रह पाएंगे, अगर ये चीजें आपने संभाकर अपने पास नहीं रखीं-श्रद्धा वीर्य स्मृति और समाधिपूर्वक जीवन। श्रद्धा- महर्षि पतंजलि द्वारा बताए गए उपरोक्त सूत्र में मूलतः श्रद्धा ही है। श्रद्धा का वास्तविक अर्थ है-महापुरुषों के वाक्यों में निष्ठा होना। उनके आप्त वचन आपको हितकर लगें। आपको यह लगे कि जो शास्त्र में है, ग्रंथ में है, संत कह रहा है, गुरु कह रहे हैं, माता पिता बता रहे हैं और हमें परंपरा से प्राप्त है, वे सारे के सारे ऐसे प्रमाण हैं जिनसे तारण हो सकता है। यही तत्व तारक हैं, धर्ममूलक हैं, व्यवस्था मूलक हैं, ज्ञानमूलक हैं तथा मुक्तिमूलक हैं। जब हमें भ्रम घेरेगा, दुविधा में भटक जाने का भय पैदा होगा, अज्ञान में लुप्त होना निश्चित सा लगने लगेगा, संदेह और संशय कुलबुलाएंगे। तथा बुद्धि को व्यथित करेंगे तब हमें महर्षि पतंजलि का यह सूत्र सही राह दिखाएगा, सांत्वना एवं धैर्य बंधाएगा तथा हमारी रक्षा करेगा।
सत्संग के इस वातावरण के मूल में भी मात्र श्रद्धा है। कहीं के परिवेश में बौद्धिकता होती है और कहीं के परिवेश में पाण्डित्य होता है। कहीं का परिवेश अत्यंत ऊर्जा से भरा होता है। वहां प्रबंधन, व्यवस्था, सज्जा और बहुत सी औपचारिकताएं हावी होती हैं। लेकिन यहां का परिवेश पूर्णतया आस्थापूर्ण है और इस परिवेश के मूल में है-श्रद्धा।
श्रीमद्भागवत गीता में कहा गया है श्रद्धा ज्ञान की जननी है। श्रद्धा की कोख में ही ज्ञान पलता है। जो ज्ञान भ्रम-भय का भंजन करता है, हमारी मूल मान्यताओं पर प्रहार करता है, हमारे पूर्वाग्रहों से ग्रसित हमारी बुद्धि में समाधान का कारक बनता है तथा हमें उद्धत, चंचल और उन्मत्त होने से रोकता हैय वह अत्यंत आनंदकारक एवं शांतिप्रदायक है। इसलिए भगवान ने कहा है कि श्रद्धा एक ऐसी कोख है जहां धीरे-धीरे ज्ञान पल रहा होता है। जिस ज्ञान में विनम्रता, प्रियता, आनंद माधुर्य स्थिरता, आत्मरूपता तथा आत्मैक्यता होती है, वह सबके लिए समभाव है। ज्ञान का अर्थ यह नहीं कि जिसमें श्रेष्ठता हो-वह छोटा है और मैं बड़ा हूं। ज्ञान में केवल श्रेष्ठता का बोध नहीं रहता। पवित्रता या उच्चता का बोध नहीं रहता। वैषम्यता का भाव नहीं होता। ज्ञान का अर्थ यह भी नहीं है जिसमें निरंतर पूज्यता का बोध रहे कि अब मैं बड़ा हो गया और ये छोटे हैं। ज्ञान वह है जो समतामूलक, प्रेमकारक तथा समाधान का आधार हो। यह ज्ञान आत्मभाव और अपनेपन की मीठी सी अनूभूति पैदा करता है एवं श्रद्धा से उत्पन्न होता है, यथा- श्रद्धावान्ल भते ज्ञानं तत्परः संयितेन्द्रियः। ज्ञानं लब्धा परां शांतिमचिरेणाधिगच्छति।