भारतीय शिक्षा का बीजारोपण आज से लगभग चार हजार वर्ष पूर्व हुआ था किंतु उसके सुसम्बद्ध स्वरूप के दर्शन वैदिक काल के आरम्भ में होते हैं। वैदिक काल मनु से लेकर महाभारत काल तक माना जाता है। इस काल में शिक्षा पर ब्राह्मणों का अधिकार था शिक्षा आश्रम व्यवस्था पर आधारित थी छात्र आश्रम में गुरू के परिवार का सदस्य बनकर रहता था। शिक्षा निःशुल्क थी परंतु गुरू सेवा शिष्य का परम कर्तव्य था। वैदिक काल में शिक्षा मनुष्य के सर्वांगीण विकास के लिए अपरिहार्य मानी गयी। शिक्षा प्राप्त करने के लिए कोई वर्ग भेद, जाति बन्धन नहीं था। स्त्रियों को भी शिक्षा प्राप्त करने की पूरी स्वतंत्रता थी। उस समय का समाज आश्रमों के प्रति सजग था और गुरू की स्वीकृति पर वह आश्रमों को सहायता दे सकता था। शिक्षा में अध्यवसाय, संयम, त्याग और स्वतंत्र चिंतन को प्रमुख स्थान प्राप्त था, गुरु शिष्य संबंध बड़े मधुर तथा पिता-पुत्र सरीखे थे। गुरु निर्देशन करता था और शिष्य अनुकरण द्वारा ज्ञान, भाव व कर्म को अपनाना था। उस युग में विद्वानों का मत था कि शिक्षा का प्रकाश व्यक्ति के सब संशयों का उन्मूलन तथा उनकी सब बाधाओं को दूर करता है, शिक्षा उसके सुख, यश और समृद्धि में योग देती है उसे जीवन के यथार्थ को समझने में सहयोग करती है। प्राचीन भारत में जिस शिक्षा प्रणाली को प्रतिपादित किया गया था वह अनेक सदियों तक चंद परिवर्तनों के साथ चलाती रही। बौद्ध काल में शिक्षा वेदों और प्रचलित जाति व्यवस्था के खिलाफ थी। बौद्ध दर्शन के अनुसार शिक्षा का उद्देश्य मोक्ष प्राप्त करना था। महात्मा बुद्ध निर्वाण प्राप्ति के लिए ज्ञान को सर्वोत्तम साधन मानते थे। यहां ज्ञान का अभिप्राय सम्यक शिक्षा से ही है। बौद्धों ने प्राथमिक, माध्यमिक और उच्च शिक्षा के लिए अलग-अलग व्यवस्थाएं कीं। प्राथमिक शिक्षा के लिए उन्होंने भी आश्रम प्रणाली को अपनाया। माध्यमिक शिक्षा के लिए चरण नामक शिक्षण संस्थाएं चलायी तो उच्च शिक्षा के लिए मठों की स्थापना की। मठों में विभिन्न प्रकार के हस्तशिल्प तथा व्यावसायिक शिक्षा का भी उचित प्रबंध था। नालंदा और तक्षशिला विश्वविद्यालय उस काल के विश्व प्रसिद्ध शिक्षण संस्थाएं थीं। मौर्य काल में बौद्ध कालीन शिक्षा की बहुत उन्नति हुई, कौटिल्य (चाणक्य) स्वयं तक्षशिला विश्वविद्यालय में आचार्य थे, मौर्य काल में शिक्षा में बहुत परिवर्तन हुए तथा इसी समय शकों, कुषाणों, पल्लवों और यवनों ने भारत पर आक्रमण किया। उन्होंने भारतीय शिक्षा को प्रभावित किया लेकिन भारतीय शिक्षा व्यवस्था ने उन्हें भी स्वयं में समा लिया। आठवीं सदी के प्रारंभ में इस्लाम शासक आक्रामक बनकर आए और भारत में लगभग 550 वर्ष तक मुसलमानों का शासन रहा। उन्होंने यहां एक नई शिक्षा प्रणाली की शुरुआत की जिसे मध्यकालीन मुस्लिम शिक्षा प्रणाली भी कहा गया, दरअसल मुस्लिम शिक्षा एक विदेशी शिक्षा प्रणाली थी जिसे भारत में प्रतिरोपित किया गया और जो ब्रह्माणीय शिक्षा से अति अल्प संबंध रखकर अपने नवीन रूप में विकसित हुई। मुस्लिम शासकों ने धर्म शिक्षा के लिए मकतब स्थापित किये और उच्च शिक्षा के लिए मदरसे, इनमें मुस्लिम धर्म और संस्कृति की शिक्षा भी दी जाती थी। शिक्षा अरबी और फारसी भाषा के माध्यम से दी जाती थी। भारत में शिक्षा को लेकर दो प्रकार के मुस्लिम शासक थे, एक ओर अलाउद्दीन, फिरोज, तुगलक, औरंगजेब जैसे कट्टर थे जिनका एकमात्र उद्देश्य हिंदुओं की शिक्षा व संस्कृति के केन्द्रों का विनाश कर मुस्लिम शिक्षा और संस्कृति का प्रसार करना था इसके विपरीत अल्तमश, मुहम्मद तुगलक, अकबर व शाहजहां जैसे शासक भी थे जिन्होंने शिक्षा के प्रति रुचि प्रकट की और इस दिशा में कुछ सराहनीय कार्य किए। मुस्लिम शासन के पश्चात भारत में यूरोपीय कंपनियों का आगमन प्रारंभ हुआ। समान कार्य में संलग्न होने के कारण कुछ ही वर्षों में इन कंपनियों में आपसी प्रतिद्वंद्विता प्रारंभ हो गयी। इस प्रतिद्वद्विंता ने शीघ्र ही शक्ति परीक्षा के लिए पारस्परिक युद्धों का रूप धारण कर लिया। अंत में ईस्ट इंडिया कंपनी ने अपने सभी प्रतिद्वंद्वियों को परास्त करके भारत में ब्रिटिश साम्राज्य की स्थापना की दिशा में अपना अभियान आरंभ किया। भारत में लार्ड मैकाले को अंग्रेजी शिक्षा का जन्मदाता माना जाता है। मैकाले द्वारा भारत में शिक्षा को मात्र बाबू बनाने एवं शासकीय कार्यों में सहायक प्रक्रिया के रूप में प्रतिपादित किया गया। इसके लिए अंग्रेजी पद्धति के विद्यालय स्थापित किये गए। अंग्रेजों ने
भारतीय विद्यालयों, मकतबों या मदरसों को कोई प्रोत्साहन नहीं दिया। अप्रत्यक्ष रूप से ईसाई मिशनरी भारतीयों को ईसाई बनाने का प्रयत्न करती रही शासकीय भाषा अंग्रेजी होने तथा विज्ञान की शिक्षा के आकर्षण से भारतीय लोगों में इस शिक्षा के प्रति रुचि बढ़ने लगी। ब्रिटिश काल में तत्कालीन आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर शिक्षा की व्यवस्था की जाती थी, उन्हें सरकारी कर्मचारियों की आवश्यकता थी जिसकी पूर्ति करना ही उनकी शिक्षा का उद्देश्य था और शिक्षा को प्राप्त करने के बाद व्यक्ति उनका गुलाम बन जाता था। सामान्यतः उस समय की शिक्षा लोगों को नौकरी के लिए ही तैयार करती थी। प्राचीन भारतीय परम्परा की शिक्षा को उतना प्रोत्साहन नहीं मिला जितना पाश्चात्य संस्कृति के विद्यालयों को मिला, हालांकि देश के कुछ प्रबुद्ध वर्ग व नेताओं ने प्राचीन भारतीय परम्परा के गुरुकुलों, महाविद्यालयों व पाठशालाओं को चलाने का प्रयास किया। आजादी के बाद देश में शिक्षा के क्षेत्र में काफी बदलाव देखने को मिले हैं, यह माना जाने लगा कि शिक्षा का प्रमुख व आवश्यक उद्देश्य बालक के व्यक्तित्व का सर्वांगीण विकास करना है।