एक अरसे से यह महसूस किया जा रहा था कि अनुसूचित जाति-जनजाति प्रताड़ना निवारण अधिनियम अर्थात एससी-एससी एक्ट का दुरुपयोग हो रहा है, लेकिन इस बारे में सरकार के स्तर पर कोई पहल इसलिए नहीं हो पा रही थी कि कहीं उसकी मनमानी व्याख्या करके उसे राजनीतिक तूल न दे दिया जाए। इन स्थितियों में इसके सिवा और कोई उपाय नहीं रह गया था कि सुप्रीम कोर्ट हस्तक्षेप करके कुछ ऐसे उपाय करता जिससे यह अधिनियम बदला लेने का जरिया बनने से बचे। अच्छा हुआ कि सुप्रीम कोर्ट ने यह निर्देश दिया कि प्रताड़ना की शिकायत मिलते ही न तो तत्काल उसे एफआईआर में तब्दील किया जाएगा और न ही आरोपित की तुरंत गिरफ्तारी होगी। उसने यह भी स्पष्ट किया कि न केवल आरोपित सरकारी कर्मचारियों, बल्कि आम नागरिकों के खिलाफ भी सक्षम पुलिस अधिकारी की जांच के बाद ही आगे की कार्रवाई होगी। ऐसा कोई प्रावधान सिर्फ इसलिए आवश्यक नहीं था कि एससी-एसटी एक्ट का बेजा इस्तेमाल किया जा रहा था, बल्कि इसलिए भी था, क्योंकि कानून का तकाजा भी यही कहता है। इस एक्ट का किस तरह दुरुपयोग किया जा रहा था, यह इससे समझा जा सकता है कि अकेले 2016 में दलित प्रताड़ना के 5347 मामले झूठे पाए गए। इसकी भी अनदेखी नहीं कर सकते कि एससी-एसटी एक्ट का दुरुपयोग जातीय विद्वेष बढ़ाने का काम कर रहा था। कानून के श्ाासन की प्रतिष्ठा के लिए जहां यह जरूरी है कि अपराधी बचने न पाएं, वहीं यह भी कि निर्दोष सताए न जाएं। सुप्रीम कोर्ट ने यह स्पष्ट कर भी अच्छा किया कि एससी-एसटी एक्ट के तहत अभियुक्त को जमानत दिया जाना भी संभव है। जमानत पाने की राह साफ करने की जरूरत इसलिए थी, क्योंकि अपने देश में पुलिस की जांच और अदालती कार्यवाही में देरी किसी से छिपी नहीं। कई बार यह देरी आरोपित व्यक्तियों को बहुत भारी पड़ती है।
एससी-एसटी एक्ट की अनावश्यक कठोरता को कम करके सुप्रीम कोर्ट ने इसे दमनकारी कानून का पर्याय होने से बचाया है। बेहतर है कि इस तरह के अन्य कानूनों की भी न्यायिक समीक्षा की जाए जो अपनी कठोरता के कारण दमनकारी कानून कहे जाने लगे हैं और जिनका बड़े पैमाने पर दुरुपयोग भी हो रहा है। इसमें संदेह है कि यह काम सरकार कर सकती है, क्योंकि विपक्षी दल संकीर्ण राजनीतिक लाभ के फेर में उसे संबंधित वर्ग या समुदाय का बैरी करार दे सकते हैं। सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद किसी को भी इस मुगालते में नहीं रहना चाहिए कि एससी-एसटी एक्ट को कमजोर करने का काम किया गया है। पुलिस और राज्य सरकारों के साथ ही राजनीतिक दलों को भी यह सुनिश्चित करना चाहिए कि समाज के उन तत्वों का दुस्साहस न बढ़ने पाए, जो अनुसूचित जातियों और जनजातियों को प्रताड़ित करते रहते हैं। एससी-एसटी एक्ट का अस्तित्व यही बताता है कि भारतीय समाज को जातीय द्वेष की भावना से मुक्त होना अभी भी श्ोष है। इसमें दोराय नहीं कि एससी-एसटी एक्ट का दुरुपयोग हो रहा था, लेकिन यह भी एक तथ्य है कि दलितों और जनजातियों के उत्पीड़न के मामले सामने आते ही रहते हैं।