रूठना और मनाना मानवीय स्वभाव का हिस्सा है। साहित्य जगत में इसका खूब चित्रण किया गया। इसमें वात्सल्य से लेकर श्रृंगार रस तक की धाराएं प्रवाहित होती हैं। मां और सन्तान का एक-दूसरे से रूठना-मनाना अद्भुत होता है। बिल्कुल निःस्वार्थ। कई बार रूठने का कारण बड़ा लगता है, लेकिन बाद में लगता है कि इसमें वात्सल्य के अलावा कुछ नहीं होता। बच्चे की बुद्धि जहां तक जा सकती है, वह उसी के लिए रूठता है। मां का प्रेम उससे भी बहुत आगे निकल जाता है। बाद के रिश्ते इतने निःस्वार्थ और निर्मल नहीं होते। क्योंकि तब रूठने और मनाने वाले दोनों पक्ष बुद्धिमान होते हैं। साहित्य जगत उसमें भी श्रृंगार रस तलाश लेता है। किन साहित्य के विपरीत सियासत की दुनिया अलग होती है। रूठना और मनाना यहां खूब चलता है। रूठे तो कहो सब पोल-पट्टी खोल कर रख दें, फिर मान गए तो ऐसा लगता है जैसे कुछ हुआ ही नहीं इसके अलावा सियासत के रूठने में सच्चाई वह नहीं होता जो दिखाई देती है। इसमें पर्दे के पीछे भी बहुत कुछ चलता है। वैसे सियासत में भी वह रूठने वाले भाग्यवान होते हैं, जिन्हें कोई मनाने वाला होता है। पिछले दिनों अमर सिंह अपनी पार्टी से रूठ गए थे। इस्तीफे तक की धमकी दे डाली।
अगली खबर से उनके रूठने का कोई सीधा मतलब था या नहीं यह तो संबंधित लोग ही बता सकते हैं। अमर सिंह की सहयोगी जयप्रदा को कैबिनेट मंत्री का दर्जा क्या मिला जितने मुंह उतनी जबान। कहा जाने लगा कि यह रूठे अमर सिंह को मनाने के लिए किया गया। ऐसा भी नहीं कि सियासत में रूठने मनाने का चलन नया है। इस मामले में साहित्य से कहीं ज्यादा उदाहरण इतिहास में दर्ज हैं। कई बार तो रूठने वालों ने राजा को मनाने का मौका ही नहीं दिया, इससे सिंहासन बदल गया। कई बार मान जाने के लिए ऐसी शर्तें लगा दी गयीं कि आगे के घटनाक्रम में जमीन आसमान का परिवर्तन हो गया। आधुनिक समय की बात करें तो महात्मा गांधी कांग्रेस से ही कई बार रूठे थे, राममनोहर लोहिया, दीनदयाल उपाध्याय इससे अछूते नहीं थे। लेकिन ये सभी महापुरूष निजी या पारिवारिक स्वार्थ से बहुत ऊपर थे। इसलिए इनका रूठना या नाराज हो जाना भी सम्मान, सिद्धांत और राष्ट्र के लिए होता था। आज स्थिति बदल चुकी है। अधिकांश नेताओं के रूठने की निजी वजह होती है। जिसे सिद्धांतों में लपेट कर पेश किया जाता है ऐसे नेता मानते हैं कि वह जो कहेंगे, उसे लोग स्वीकार कर लेंगे। लेकिन जनता की समझ में कमी नहीं होती। स्वार्थ और सिद्धांत के अंतर को समझने में उसे देर नहीं लगती। राजनीति में सक्रिय लोगों के लिए पद, यश, सत्ता की कामना अस्वाभाविक नहीं होती। लेकिन इसी को राजनीतिक पद या सत्ता का साधन के रूप में में महत्व अवश्य हो सकता है। महात्मा गांधी, दीनदयाल उपाध्याय, राम मनोहर लोहिया जैसे लोगों को आज की राजनीति में तलाशना व्यर्थ है। ये महापुरूष सत्ता या पद की इच्छा से मुक्त थे। महात्मा गांधी ने कभी कोई चुनाव नहीं लड़ा।
राम मनोहर लोहिया किसी तरह उप चुनाव जीतकर लोकसभा में पहुंचे थे। दीनदयाल उपाध्याय ने जातिवाद के आधार पर चुनाव लड़ने से इन्कार कर दिया था। लोकसभा चुनाव में वह पराजित हुए। ऐसे महापुरूषों की एक अन्य विशेषता यह थी कि ये भाई-भतीजावाद से पूरी तरह मुक्त थे। आज ऐसे लोग दुर्लभ हैं। अब केवल अपवाद स्वरूप ही ऐसे लोग दिखाई देते हैं। परिस्थितियां कितनी भी प्रतिकूल हों, समय चाहे जितना बदल गया हो, फिर भी राजनेताओं से कतिपय मर्यादाओं की अपेक्षा है। उनकी नाराजगी रूठने और फिर मान जाने का एक स्तर होना चाहिए। कहीं न कहीं इसमें भी आदर्श, नैतिकता व मर्यादा की झलक होनी चाहिए।
क्योंकि ऐसे चर्चित लोगों पर पूरे समाज की नजर होती है। पिछले दिनों सपा के वरिष्ठ और चर्चित नेता अमर सिंह ने सार्वजनिक तौर पर नाराजगी व्यक्त की। उनकी नाराजगी का दायरा बहुत व्यापक नजर आ रहा था। उनके प्रश्नों की जद में शासन व्यवस्था, ईमानदारी जैसे आदर्श शामिल थे लगा कि अमर सिंह समाजसेवा व राजनीति में साधन की पवित्रता चाहते हैं। वह चाहते हैं कि व्यवस्था बदल जाए। पिछली सरकार में जैसा भ्रष्टाचार था वह समाप्त हो जाए उस सरकार में जो लोग गलत कार्य कर रहे थे उनको हाशिए पर रखा जाए अच्छे अधिकारियों को महत्वपूर्ण पदों पर तैनात किया जाए। लोगों को व्यवस्था बदलने का अनुभव होना चाहिए।
अमर सिंह ने कम शब्दों में बड़ी बातें कहीं थी। उसका व्यापक अर्थ था। जब वह कहते हैं कि बसपा सरकार में जिन अधिकारियों का वर्चस्व था वही ऐश कर रहे हैं। जाहिर है यह व्यवस्था पर प्रहार था, जबकि समाजवाद में व्यवस्था बदलने पर बहुत जोर दिया गया। इसमें सत्ता ही नहीं व्यवस्था बदलने की बात कही जाती थी। अमर सिंह की बातों का यही अर्थ था कि सत्ता बदली है लेकिन व्यवस्था में पिछली सरकार के महत्वपूर्ण रहे लोगों का प्रभाव है।
इसके अलावा अमर सिंह की कुछ अपने से जुड़ी परेशानियां थीं। उन्होंने कहा था कि उन्हें राज्यसभा में पीछे बैठाया जाता है। सपा के ही कुछ राज्यसभा सदस्य उनको बोलने से वंचित रखना चाहते हैं इसके अलावा मुख्यमंत्री उनसे बात नहीं करते। यहां तक कि वहां का टेलीफोन आपरेटर तक उनसे बेरूखी से बात करता है। यदि अमर सिंह के शब्दों पर विचार करें, तो यह मानना होगा कि उनकी नाराजगी व्यापक थी, लेकिन इसके बाद का घटनाक्रम सिद्धांतों से मेल नहीं खाता।