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Home सम्पादकीय

राहुल गाँधी की ‘खाट’ पर भला क्यों बैठेगी यूपी की जनता?

by Suchana Online
September 23, 2016
in सम्पादकीय
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मोदी के मंत्री देंगे अप्रेजल रिपोर्ट
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देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस को अपने लंबे इतिहास में उतने बुरे दिन कभी नहीं देखने पड़े हैं, जितना इस पार्टी ने राहुल गाँधी के सक्रीय राजनीति में आने के बाद देखा. आखिर, कौन कल्पना कर सकता था कि कभी भारत भर में वर्चस्व रखने वाली कांग्रेस पार्टी एक-एक करके न केवल तमाम राज्यों से सिमट जाएगी, बल्कि केंद्र तक में उसे 44 सीट पर ही संतोष करना पड़ेगा. पर ऐसा हुआ और इसके तमाम कारण भी गिनाये जा सकते हैं, लेकिन उन सभी कारणों में ‘राहुल गाँधी का नेतृत्व’ सबसे महत्वपूर्ण कारण निश्चित रूप से गिनाया जा सकता है. राहुल गाँधी ने जब पॉलिटिक्स में एंट्री ली, तब कुछ दिन तक जनता ने उन्हें उम्मीद से जरूर देखा किन्तु कहते हैं न कि किसी इंसान की क्वालिटी तब तक ही छुपी रहती है जब तक उसका मुंह बंद (Rahul Gandhi Khat Sabha, Hindi Article) हो. राहुल गाँधी की क्षमता भी एक-एक करके फुस्स होती चली गयी और कांग्रेस पार्टी को डुबोने में उन्होंने अपनी महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर ही दी. देखा जाए तो पिछले कई दशकों से उत्तर प्रदेश को कांग्रेस पार्टी एक तरह से अनदेखा ही करती आ रही है, किन्तु अब जब उसके अस्तित्व पर संकट आन खड़ा हुआ है तो अरबों रूपये खर्च करके चुनावी कन्सलटेंट की सहायता ली जा रही है और बावजूद उसके जब बात बनती नज़र नहीं आ रही है, तो खाट सभा का ड्रामा रचाया जा रहा है. खाट सभा का कांसेप्ट अपनी जगह है, किन्तु जिस तरह से राहुल गांधी की सभाओं के बाद उसकी लूट मच रही है उस पर सोशल मीडिया पर खूब मजाक बन रहा है. लोगबाग कहने से नहीं चूक रहे हैं कि राहुल गाँधी एक तरह से मतदाताओं को घूस ही दे रहे हैं, किन्तु इससे उनकी ‘पप्पू’ वाली छवि ही पुख्ता हो रही है. इस सम्बन्ध में किसी का दिलचस्प कमेंट पढ़ा कि सांसद, संसद में चर्चा करते हैं और खाट पर सोते हैं, किन्तु राहुल गांधी ‘खाट पर चर्चा’ करते हैं और संसद में सोते हैं.
वाकई, राहुल गाँधी जैसा दिलचस्प किरदार राजनीति में कर क्या रहा है, इस पर भारी आश्चर्य होता है तो सोचने वाला विषय यह भी है कि ‘पप्पू’ वाली छवि से कोई भी ‘कन्सलटेंट’ उन्हें किस प्रकार मुक्ति दिला सकता है. कांग्रेस पार्टी यूपी चुनाव में सक्रिय होने की कोशिश जरूर कर रही है, किन्तु उसका आधार खोखला ही नज़र आ रहा है. इस बात के पीछे ठोस तर्क भी हैं. सक्रीय राजनीति से सन्यास ले चुकीं शीला दीक्षित को जबरदस्त यूपी सीएम का कैंडिडेट घोषित कराना, राहुल गाँधी को पंडित बता कर प्रचार करना, खाट सभा की ड्रामेबाजी और सबसे बड़ी बात यह कि राहुल गाँधी लगातार केंद्र सरकार और उससे आगे बढ़कर प्रदेश की अखिलेश सरकार की बुराइयां तो कर रहे हैं, किन्तु वह अपनी पार्टी की उपलब्धियां नहीं गिना पा रहे हैं. ऐसे में जनता बखूबी समझ पा रही है कि राहुल गाँधी सिर्फ और सिर्फ वोट-कटवा की भूमिका में ही रहने वाले हैं. यूं तो राहुल गांधी अपनी बाहें चढ़ाते हुए अक्सर नज़र आ जाते हैं, किन्तु इन दिनों अखिलेश यादव पर वह कुछ ज्यादा ही अग्रेसिव नज़र आ रहे हैं. अखिलेश की बात आयी तो उनसे राहुल गाँधी की तुलना अवश्य ही एक बार होनी चाहिए. राहुल गाँधी और अखिलेश यादव दोनों ही मजबूत राजनीतिक बैकग्रॉउंड से आये हैं, किन्तु एक ओर जहाँ अखिलेश यादव ने मुख्यमंत्री पद पर बैठकर तमाम कल्याणकारी योजनाओं को लागू किया, वहीं राहुल गांधी बार-बार कहने के बाद भी मनमोहन सरकार में कोई जिम्मेदारी उठाने से दूर भागते रहे. दूसरी ओर अखिलेश यादव को कोई भी गलती करने पर मुलायम सिंह सबके सामने कड़ाई से सीख देते हैं, वहीं सोनिया गाँधी ने राहुल गाँधी को कभी राजनीतिक सीख दी ही नहीं! समझना मुश्किल नहीं है कि यूपी चुनाव में जनता को अगर इन दोनों में चुनना पड़े तो वह किसे चुनेगी.
राहुल गाँधी अपनी जिम्मेदारी से न केवल राजनीतिक रूप से भागते रहे हैं, बल्कि पारिवारिक स्तर पर भी वह ‘किंकर्तव्यविमूढ़ता’ की स्थिति में ही रहे हैं. भारतीय सभ्यता में जब तक व्यक्ति शादी न कर ले, वह पूर्ण नहीं समझा जाता है. अन्यथा, वह संन्यास का मार्ग चुन सकता है, किन्तु राहुल गाँधी न तो पारिवारिक जीवन से सन्यास ले रहे हैं और न ही पारिवारिक जीवन की जिम्मेदारियां वहन करना चाह रहे हैं. … टोटली कन्फ्यूज्ड! कई राजनीतिक विश्लेषक अप्रत्यक्ष रूप से कहने से नहीं चूकते हैं कि जब तक राहुल गांधी का साया कांग्रेस पर रहेगा, तब तक उसकी ‘खाट’ की इज्जत गिरती ही जाएगी. हालाँकि, कांग्रेस के ‘तथाकथित’ रणनीतिकार इस बात की उम्मीद लगाए बैठे हैं कि जैसे तैसे कांग्रेस को 40 – 50 सीटें मिल जाएँ और फिर बाद में सपा या बसपा जो भी सरकार बनाने की स्थिति में हो, उससे तालमेल कर लिया जाए. साफ़ है कि कांग्रेस की स्ट्रेटेजी ही यह है कि उत्तर प्रदेश में स्थिर सरकार न बने, बल्कि उसमें कांग्रेस की बैसाखी जरूर हो. पर दुर्भाग्य यह है कि इस बार यूपी में एक-एक सीट के लिए मारामारी मची है. अखिलेश यादव सत्ता में वापसी का दावा अपने जल कल्याणकारी कार्यों के बल पर ठोक रहे हैं तो मायावती को एंटी-इनकंबेंसी पर भरोसा है. वहीं अमित शाह यूपी के अच्छे दिनों का नारा दे रहे हैं, बेशक सीमा पर पाकिस्तान भारतीय जवानों को मार रहा है. जाहिर है, सपा-बसपा-भाजपा की लड़ाई के बीच कांग्रेस सैंडविच की तरह ही है, जिसका न तो कोई ठोस जनाधार है, न तो कोई जातीय समीकरण हैं और न ही भ्रष्टाचारी यूपीए सरकार की गिनाने वाली कोई ख़ास खूबी है. ऊपर से तुर्रा यह कि राहुल गाँधी की ‘पप्पू’ वाली छवि मजबूत ही होती जा रही है. लगभग दो दशक के राजनीतिक जीवन में काश कि राहुल गांधी के पास गिनाने लायक एकाध उपलब्धि भी होती, तो शायद यूपी की जनता थोड़ा तो विश्वास कर ही लेती. साफ़ है कि कांग्रेस के लिए यूपी में स्थिति ज़रा भी माकूल नहीं है, ऐसे में बेहतर हो कि वह 25 – 30 सीटें लेकर सपा जैसी पार्टी से तालमेल कर ले, अन्यथा कहीं ऐसा न हो कि राहुल गाँधी की परीक्षा कहा जाने वाला यूपी चुनाव उनकी छवि पर आखिरी प्रहार बन जाए!

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