उत्तर प्रदेश का समाजवादी परिवार अब एक सुर में नहीं बोलता है। पार्टी के भीतर होने वाले सभी छोटे−बड़े फैसलों पर परिवार के लोगों द्वारा ही जब उंगली उठाई जाती हो तो पार्टी के अन्य नेताओं और कार्यकर्ताओं को कैसे रोका जा सकता है। स्थिति यह है कि सपा प्रमुख मुलायम सिंह के निर्णयों को भी चुनौती दी जा रही है। पार्टी के भीतर यह सिलसिला नेताजी द्वारा अखिलेश यादव के मुख्यमंत्री बनाये जाने की घोषणा के बाद शुरू हुआ था जो राष्ट्रीय लोकदल और सपा के गठजोड़ की खबरों के आने तक बदस्तूर जारी है।
बिहार में सपा के महागठबंधन का हिस्सा बनने की बात हो या फिर केन्द्र के साथ कैसे रिश्ते रखे जायें इस पर समाजवादी नजरिये का मसला अथवा छोटी बहू अर्पणा यादव को लखनऊ कैंट से चुनाव लड़ाने का फैसला और उसके बाद लम्बे समय से सपा से रूठे नेताओं बेनी प्रसाद वर्मा और अमर सिंह को राज्यसभा भेजने का मामला। सभी फैसलों में समाजवादी परिवार के बीच विचारों में बिखराव ही बिखराव दिखा। ऐसा लगता है कि सपा में एक गुट रामगोपाल वर्मा, आजम खान जेसे नेताओं का हो गया है तो दूसरे गुट का नेतृत्व शिवपाल यादव कर रहे हैं। शिवपाल यादव इस समय मुलायम के हर फैसले में साथ दे रहे हैं या यह भी कहा जा सकता है कि शिवपाल यादव जो चाह रहे हैं वह वो फैसला नेताजी से करा ले जा रहे हैं। चाहे अमर सिंह, बेनी प्रसाद वर्मा की वापसी हो या फिर रालोद और सपा के बीच बढ़ती नजदीकी। यह सब फैसले लिये भले ही नेताजी ने किये हों, लेकिन इसके पीछे शिवपाल की सोच को अनदेखा नहीं किया जा सकता है।
सबसे बड़ी बात यह है कि समाजवादी सियासत में सूबे के मुखिया अखिलेश यादव कहीं किसी तरह के किरदार में नजर नहीं आते हैं। अपवाद को छोड़कर उन्होंने शीर्ष नेतृत्व के किसी फैसले पर कभी आपत्ति नहीं दर्ज कराई। अखिलेश के रिश्ते भी सबके साथ ठीकठाक बने हुए हैं। यही वजह है जब मीडिया वाले या विरोधी दलों के नेता यूपी में साढ़े चार मुख्यमंत्री का जुमला इस्तेमाल करते थे तो अखिलेश इस मसले पर मौन ही साधे रहते थे।
युवा सपा नेता और सीएम अखिलेश यादव न तो आजम खान से बैर पालते हैं और न अमर सिंह के प्रति दुर्भाव रखते हैं। चाचा प्रो0 रामगोपाल यादव और शिवपाल यादव के समाने अखिलेश जुबान खोलने से बचते रहते हैं। अगर कहीं अपना विरोध दर्ज कराना होता है तो भी अखिलेश लक्ष्मण रेखा नहीं लांघते हैं। अखिलेश एक बार तब नाराज हुए थे जब उनकी टीम के कुछ खास नेताओं को नेतृत्व ने हाशिये पर डालने का प्रयास किया था और एक बार सिंचाई मंत्री और चाचा शिवपाल यादव की शिकायत पर मजाकिया लहजे में कहा था कि चाचा आज बहुत गुस्से में हैं। उस समय दोनों ही एक मंच पर मौजूद थे। अखिलेश बोलते नहीं हैं इसका यह मतलब नहीं है कि उन्हें सियासी दांव−पेंच नहीं आते हैं। अखिलेश की सियासी दांव से शिवपाल भी अछूते नहीं रहे हैं। एक समय ऐसा भी आया था अखिलेश और शिवपाल के बीच विश्वास की खाई काफी गहरा गई थी। तब मुलायम को हस्तक्षेप करना पड़ गया था।
शिवपाल की नाराजगी को कम करने के लिये नेताजी को उन्हें (शिवपाल यादव) सपा का प्रदेश प्रभारी नियुक्त करना पड़ गया। अक्टूबर 1992 के बाद से अभी तक सपा में प्रदेश प्रभारी का पद नहीं बना था, लेकिन सपा परिवार को बिखरने से बचाने के लिये यह पद सृजित करके शिवपाल को उस पर बैठाया गया। शिवपाल यादव का प्रदेश प्रभारी का पद अखिलेश के उत्तर प्रदेश अध्यक्ष के पद से ऊपर का है। वैसे, कहने वाले यह भी कहते हैं कि अखिलेश संगठन नहीं सरकार की सियासत कर रहे हैं। उन्हें इस बात का अच्छी तरह से अहसास है कि अगर उनकी सरकार काम अच्छा करेगी तो मतदाताओं का समर्थन उन्हें मिल ही जायेगा। राष्ट्रीय लोकदल से गठजोड़ के संबंध में भी अलिखेश यादव कुछ नहीं बोल रहे हैं। भले ही रामगोपाल यादव खेमा सार्वजनिक रूप से इस गठजोड़ का विरोध और शिवपाल यादव समर्थन कर रहे हों।