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Home सम्पादकीय

देश की धरोहर पर चिंतन

by Suchana Online
August 2, 2016
in सम्पादकीय, होम
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अब घर-घर पहुंचेगा गंगाजल, होगी ऑनलाइन बुकिंग
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हमारा देश भारत महान है। यह बात हम यूं ही नहीं कहते। देश के बाहर भी लोग यह मानने लगे हैं। अभी कुछ दिन पहले खबर पढ़ी थी कि केन्द्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड़ (सीबीएसई) स्कूली छात्रों को अपनी संस्कृति और विरासत से जोड़ेगा। इसी के कुछ दिन बाद एक खबर पढ़ी कि अमेरिका में नीम की एक दातून 135 रूपये में मिलती है। नीम हमारे देश का पेटेंट पेड़ है। उसके औषधीय गुणों के बारे में किसी को बताने की जरूरत नहीं फिर पंजाब से एक खबर पढ़ी कि वहां आलू काटकर डिब्बों में बंद कर बेचे जाएंगे। आलू की हमारे यहां बम्पर पैदावार होती है। इसको हम सुरक्षित रूप से रख नहीं पाते। सड़ जाता है। इसलिए कोल्ड स्टोर में जितना रखा मिलता है, उतना बच जाता है लेकिन तब आमलोगों को काफी महंगा मिलता है। आलू ही क्यों कितनी ही सब्जियां हमारे यहां इफरात में पैदा होती हैं लेकिन उनको हम विदेशों तक निर्यात नहीं कर पाते। अब भिंडी, आलू को नये रूप में हम दूसरे देशों में भेजकर विदेशी मुद्रा भी कमा सकेंगे और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी जिस मेक इन इण्डिया की बात करते हैं, वह साकार हो जाएगा। अभी तक हम ताजमहल, इमाम बाड़ा, अजंता-एलोरा तीर्थ स्थलों ही अपनी घरोहर समझते थे लेकिन धरोहरों की तो पूरी एक श्रृंखला है जो भारत को महान बनाती है।
अब बात नीम की ही लें तो हम उसे अपने देश में ही कितना अपना रहे हैं। हमारे यहां तो घर घर में नीम के पेड़ मिल जाते हैं लेकिन क्या नीम की दातून करने की हम जरूरत समझते है। हमने कभी अपने बच्चों को यह समझाया कि बेटा सबेरे-सबेरे नीम की दातून करो। नीम को विदेशांे में गाॅड गिफ्ट के रूप में देखा जा रहा है। एंटी वैक्टीरियल और एंटी फंगल तत्वों की मौजूदगी इसकी खास वजह मानी जाती है। यही कारण है कि यूरोपीय देशों में लोग टूथ पेस्ट की बजाय नीम की दातून को तरजीह दे रहे हैं। वहां इसकी मांग लगातार बढ़ रही है। अमेरिका जैसे देश में नीम की एक दातून की कीमत दो डालर है जो भारत में लगभग 135 रुपये होते हैं। लखनऊ में सीडी आर आई के पूर्व वरिष्ठ वैज्ञानिक डा. प्रदीप कुमार श्रीवास्तव ने गत दिनों यह जानकारी दी थी। उन्होंने बताया कि फिलेडेल्फिया शहर में दो डालर में एक दातून बिकते उन्होंने स्वयं देखा।
यूरोपीय देशों में धीरे-धीरे इसकी मांग बढ़ती जा रही है। अब वहां के माॅल में भी नीम की दातून बिकनी शुरू हो गयी है। दातून को खूबसूरत पैक मेंरखकर शोकेस में विशेष जगह दी जा रही है। हमारे देश मे भी इसको लोगों ने अपनाया है लेकिन इनका प्रारूप बदल जाता है। बाबा राम देव ने नीम को दांत के मंजन के रूप में पेश किया है। साबुन निर्माताओं ने नीम की पत्तियों का उपयोग करके साबुन बनाया। बाबा राम देव के पतंजलि उत्पाद देशी जड़ी-बूटियों पर ही केन्द्रित हैं और बहुत कम समय में उन्होंने 10 हजार करोड़ का टर्न ओवर रोजाना का कर लिया है। इससे देश का आर्थिक पक्ष मजबूत हो रहा है।
डा. प्रदीप श्रीवास्तव के अनुसार सुबह के वक्त जीभ सबसे संवेदन शील अवस्था में रहती है। हम खाली पेट जब दातून को दांतों से कूचते हैं तो मुंह में मौजूद वैक्टीरिया तो मरते ही है, साथ ही नीम के गुण सूक्ष्म रूप में शरीर के सभी हिस्सों में पहुंचते हैं। और मुंह के व शरीर के हानिकारक वैक्टीरिया को मार देते है। नीम में मौजूद तत्व कैंसर व डायबिटीज जैसी बीमारियों को रोकने में सहायक सिद्ध होते हैं इस प्रकार जो व्यक्ति सुबह दातून करता है, वह कैंसर व डायबिटीज की दवा नैनो के रूप में ले लेता है। एशिया की जलवायु नीम के पेड़ के लिए काफी मुफीद है नीम आस्ट्रेलिया आदि देशों में भी पाया जाता है लेकिन एशियाई देशों में नीमके एंटी वैक्टीरियल और एंटी फंगलगुण या जाता है। हमारे देश में नीम की पत्तियों को उबाल कर नहाया करते थे। म की छाल को घिसकर फोड़े-फंुसियों पर लगाते थे। चेचक निकलने पर धर के दरवाजे और मरीज के पास नीम की पत्तियां रखी जाती थीं। इसका यही तात्पर्य था कि मरीज के आस-पास का वातावरण स्वच्छ और कीटाणु नाशक बन जाता है। अनाज को सुरक्षित रखने में भी नीम की पत्तियों का प्रयोग किया जाता है जिससे अनाज में घुन नहीं लगता।
यह सब हमारी एक धरोहर ही है जिसको हम इतिहास में धीरे धीरे दफ्न कर रहे हैं। नीम का पेड़ अपने आप उगता है। उसके फलों, जिन्हें निमकौरी कहते हैं। उनको इकट्ठा करके खाद बनायी जाती है। इस धरोहर को संजोकर रखने की जरूरत है। सीबीएसई अपने छात्र-छात्राओं को अपनी संस्कृति और विकास से कैसे जोड़ेगी, इसका थोड़ा-बहुत खुलासा भी किया है। सीबीएसई इसके लिए हेरिटेज क्विज का आयोजन कराएगी।
क्विज का आयोजन तीनचरणों में होगा। अंतिम चरण में राष्ट्रीय स्तर पर क्विज प्रतियोगिता करायी जाएगी जिसमें पुरस्कार भी प्रदान किये जाएंगे।
इसी क्रम में बच्चों को हेरिटेज से परिचित कराने के क्रम में सीबीएसई ने प्रधानाचार्यो को निर्देश दिया कि वे बच्चों को अपनी धरोहरों को बचाने के लिए जागरूक करें। बच्चों को लोक कला एवं संस्कृति के साथ आदिवासी संस्कृति से भी परिचित कराया जाएगा। क्विज प्रतियोगिता में 25 फीसदी प्रश्न सांस्कृतिक विरासत एवं घरोहरों के बारे में होंगे।
सीबीएसई का यह प्रयास तो अच्छा है लेकिन धरोहरों की सीमा उसे बढ़ानी पड़ेगी। लोक कला, आदिवासी कला, हेरिटेज को बचाना बच्चे सीखें लेकिन हमारे देश की सर्व सुलभ और सहज घरोहरों को उन्हें समझाने का प्रयास भी किया जाए, जिनकी तरफ शायद सीबीएसई का ध्यान भी न गया हो। इन्हीं धरोहरों में हमारा घरेलू डाक्टर नीम है। नीम के प्रति बच्चों में फिलहाल कोई आकर्षण नहीं दिख रहा है। उसके गुणों से न सिर्फ परिचित कराया जाए बल्कि उसके उपयोग के लिए भी बच्चों को प्रेरित किया जाए। स्कूलों में बच्चों को जब यह बताया जाएगा कि वे प्रतिदिन नीम की दातून करें नीम के पौधे लगाएं और उनकी देखभाल करें तो इसका सकारात्मक प्रभाव पड़ेगा। हम यह महसूस करते हैं कि बच्चों को घर पर जो बात कही जाती है, उसे वे प्रायः नजरंदाज कर देते हैं लेकिन स्कूल में यदि यह कहा जाता है कि हाथ धोकर ही खाना खाएं तो बच्चे उस पर ध्यान देते हैं। नीम की दातून करने के लिए भी बच्चों को इसी प्रकार प्रोत्साहित किया जा सकता है। इससे नीम के प्रति उनका लगाव होगा, साथ ही डाक्टर के पास उन्हें ले जाने की संभावना भी कम होगी।
इसी प्रकार हमारे देश में उत्पादित सब्जियों का प्रयोग करना भी उन्हें सिखाया जाना चाहिए। बच्चों में फास्टफूड की तरफ जो रूझान है, वह कम होगा और हमारे देश के खाद्यान्न व सब्जियां भी जब नए नए रूप में पेश की जा रही हैं तो यह स्वदेश की भावना भी हमारी एक सांस्कृतिक धरोहर है। हमारे देश के बच्चे यदि अपनी सोच नहीं बदलेंगे तो हमारी धरोहरें सिर्फ इतिहास का विषय बनकर रह जाएंगी।

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